Sunday, February 12, 2012

निंद्राहीन

धधक रहे है शोले आज फिर निन्द्रा के शैया पर
जल रही है चिंताएँ आज फिर से इन पलकों पर
परेशानियों की तीव्र गति और ये विचिल्लित मन
क्या होगा कल, कैसी होगी कल की सुबह ?

है कैसा ये बोझ मेरे जीवन पर इस जहान का ?
मैं सब समझ कर भी इतना परेशान क्यों हूँ ?    
जलती चिता को देख कर मैं सिहर क्यों जाता हूँ ?
निन्द्रा इन आँखों से लेकिन, क्यों है कोसो दूर ?

है प्रश्न कई, पर उत्तर एक भी नहीं है मेरे पास अभी 
गुजरते देखता हूँ मैं इन रातों की घड़ी खुली आँखों से 
सुबह की लाली बिखेरते ही कुछ आश्वाशन सा मिलता है   
क्यूँकि दिनचर्या में व्यस्त होते ही चिंताएँ दूर भाग जाती हैं  

धधक रहे है शोले आज फिर निन्द्रा के शैया पर
जल रही है चिंताएँ आज फिर से इन पलकों पर
परेशानियों की तीव्र गति और ये विचिल्लित मन
क्या होगा कल, कैसी होगी कल की सुबह ?

--- स्वरचित ---
१ ३ - ० २ - २ ० १ २ 
सुबह के ३ . ३ २ का समय

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