Friday, September 30, 2011

अर्ज है...

हमें वो भूल भी जाये पर हम कैसे उन्हें भूले
आज भी धड़कता है दिल उनके ही नाम पर 

है मुक़द्दर ये हमारा की रह न सके हम उनके
उनका मुक़द्दर जुड़कर भी जुदा है देखो कैसे

हे खुदा तू ही बता फिर मिलाया हमें तुने क्यों इस तरह
जुदा करना ही था हमको तो किसी और से मिलाया होता 

--- स्वरचित ---


Sunday, September 18, 2011

अर्ज है...

हर फासला दूरियाँ ख़तम करती है मगर...
'डी' फासला निभाती हैं दूरियाँ भी तो!

--- स्वरचित ---

Saturday, September 10, 2011

मैं हूँ गरीब तो क्या?

(The poem is inspired by my recent
experience @ Dhadak Mohim)

मैं जीता हूँ अपनी ही छोटी सी दुनियाँ में...
जहाँ खाने के नाम में दो रोटी बस है मेरे लिए

मैं जीता हूँ...
जहाँ बिमारियों व दुखों से मेरी ज़िन्दगी भरी है

मैं जीता हूँ...
जहाँ भीख मांगने से मर जाना बेहतर समझा जाता है

मैं जीता हूँ...
जहाँ प्रकृति को देवता का दर्ज़ा दिया गया है पूर्वजों ने     

मैं जीता हूँ...
मैंने कभी दुनिया से नहीं कहा कि मेरी मदद करो

मैं जीता हूँ...
जहाँ मेहनत करना ज़िन्दगी का दूसरा नाम है

मैं जीता हूँ...
मैं नहीं जानता क्यों दूसरों को छोटा समझा जाता है

मैं जीता हूँ...
लेकिन दुनियाँ फिर भी मेरा शोषण करती है क्यों?

मैं जीता हूँ...
मुझे कृपा करके मेरे हाल पर छोड़ दो, मैं सुख से जीना चाहता हूँ

मैं जीता हूँ...
अमीर मेरी दुनियाँ में आकर सब तहस-नहस कर देते हैं क्यों?

मैं जीता हूँ...
मैंने कब किसी को कोई नुकसान पहुँचाया है

मैं जीता हूँ...
मेरी ज़िन्दगी मुझे छोड़कर सभी को अमीर बना देती है

मैं जीता हूँ...
पर ये वहसी दुनियावाले मुझे हर पल मारने में लगे रहते हैं 

मैं हूँ गरीब तो क्या हुआ...
धन्य है भगवन का जिसने मुझे गरीब पैदा किया!!! 


हाँ, मैं गरीब हूँ...
पर मैं दुनियाँवालों को कुछ न कुछ अपनी ज़िन्दगी में देता ही रहता हूँ!

--- स्वरचित ---
१० सितम्बर २०११