मैं न बन सका उस भीड़ का पात्र
जिस भीड़ में न था जीवन की एक लौ...
हर शक्श, बस चला जा रहा था ख्यालों में खोया
हर चेहरे पर था बस शिकन-ही-शिकन
मैं न बन सका उस भीड़ का पात्र
जिस भीड़ में न था जीवन की एक लौ...
हर कोई, बस कर रहा था शिकायत दिनचर्या की
हर चेहरे पर था उदासी की लकीरें झलकती
मैं न बन सका उस भीड़ का पात्र
जिस भीड़ में न था जीवन की एक लौ...
असमंजस मैं खड़ा, गौर से हर एक को देख कर सोचने लगा
क्या यही जीवन है? कहाँ हुई हम इंसानों से गलती?
मैं न बन सका उस भीड़ का पात्र
जिस भीड़ में न था जीवन की एक लौ...
समझ नहीं आया मौत से मिलने की कैसी ये बेक़रारी?
हर कोई जो भाग रहा था जल्दी-जल्दी
मैं न बन सका उस भीड़ का पात्र
जिस भीड़ में न था जीवन की एक लौ...
--- स्वरचित ---
२ ३ - ० १ - २ ० १ २
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